|
|
Zeile 1: |
Zeile 1: |
− | == „…hier trifft Amors Bogen nicht“ ==
| |
− | Ausarbeitung [[Roland Müller]]
| |
| | | |
− |
| |
− | ''Ein französisches Lied aus dem Jahre 1743 (dt. 1745)''
| |
− |
| |
− |
| |
− | ===Die erste deutsche Version von 1745===
| |
− |
| |
− | ''Mit leichten Veränderungen auch in'':<br/>
| |
− | Vollständiges Liederbuch der Freymäurer mit Melodieen, in Zwey Büchern. Kopenhagen und Leipzig 1776, 180-181<br/>
| |
− | (mit der Bezeichnung „Schlegel“ - Veränderungen nur in den letzten zwei Zeilen)<br/>
| |
− | Vollständiges Gesangbuch für Freimaurer. 1801, 84-85 (ohne die 4. Strophe)
| |
− |
| |
− | ''Aus'':<br/>
| |
− | L’Ordre des Francs-Maçons Trahi, et Le Secret des Mopses Revelé. Amsterdam 1745<br/>
| |
− | dt.: Die offenbarte Freymäurerey und das entdeckte Geheimniß Der Mopse. Leipzig: Mumme 1745
| |
− |
| |
− |
| |
− | '''Für die Freymäurer'''<br/>
| |
− | im December 1743.<br/>
| |
− | Nach der Weise des Französischen Liedes<br/>
| |
− | von der<br/>
| |
− | Krücke des Vaters Barnabas.
| |
− |
| |
− | :Du mußtest, Diogen,
| |
− | :Am Tage Licht verbrennen,
| |
− | :Und hast doch in Athen
| |
− | :Nicht Menschen finden können.
| |
− | :Itzt, willst du suchen gehen,
| |
− | :So laß unangezündt,
| |
− | :Hier kannst du Menschen sehen,
| |
− | :So viel hier Maurer sind.
| |
− |
| |
− | :Die Freyheit herrschet hier
| |
− | :Bey edlen Lustbarkeiten,
| |
− | :Die Wollust sitzet ihr
| |
− | :Mit allem Reitz zur Seiten.
| |
− | :Wir Maurer, wir verbinden,
| |
− | :Durch Güte der Natur,
| |
− | :Mit Platons hohen Gründen
| |
− | :Den Scherz des Epicur.
| |
− |
| |
− | :O Liebes-Gott! verzeih,
| |
− | :Du mußt uns drum nicht hassen,
| |
− | :Daß wir in unsre Reyh
| |
− | :Nicht deine Nymphen lassen.
| |
− | :Du weist schon, deine Tugend
| |
− | :Ist nicht Verschwiegenheit.
| |
− | :Nein! Kind, für deine Jugend
| |
− | :Nützt keine Heimlichkeit.
| |
− |
| |
− | :Du Störer aller Ruh,
| |
− | :Sollst unsre Ruh nicht stören.
| |
− | :Die Brüder würdest du
| |
− | :In Nebenbuhler kehren.
| |
− | :Wir sind des Zankes Feinde
| |
− | :Und meiden allen Streit,
| |
− | :Der oft die besten Freunde
| |
− | :Bey Carvels Ring entzweyt.
| |
− |
| |
− | :Doch glaube darum nicht,
| |
− | :Daß sich so schöne Seelen
| |
− | :Zu Spöttern ihrer Pflicht
| |
− | :Und deines Zepters zählen.
| |
− | :Es mischt in unsre Lieder
| |
− | :Sich oft dein Loblied ein,
| |
− | :Und alle brave Brüder
| |
− | :Sind nach der Loge dein.
| |
− |
| |
− | :Durch meinen Mund begehrt
| |
− | :Ein Schüler von den Alten,
| |
− | :Zum Pfand von seinem Werth,
| |
− | :Hier Zutritt zu erhalten.
| |
− | :Ihr, Maurer, reitzt den Dichter
| |
− | :Mit ungleich stärkrer Kraft,
| |
− | :Als mancher Sylbenrichter.
| |
− | :Verdroßne Brüderschaft.
| |
− |
| |
− | ===Dasselbe Lied, ganz anders übersetzt, 1745===
| |
− |
| |
− | ''Aus'':
| |
− | Der verrathene Orden der Freymäurer,<br/>
| |
− | Und das offenbarte Geheimniß der Mopsgesellschaft.<br/>
| |
− | aus dem Französischen mit Kupfern.<br/>
| |
− | Frankfurth und Leipzig, 1745.
| |
− |
| |
− | ''andere, textgleiche Ausgabe, meist ohne Lieder oder mit einer anderen Übersetzung derselben:''<br/>
| |
− | Leipzig, bey Arkstee und Merkus 1745.
| |
− |
| |
− |
| |
− | '''Für die Freymäurer.'''<br/>
| |
− | Im Christmonate 1743.
| |
− |
| |
− |
| |
− | ''die französische Ausgabe hat hier den Zusatz'':<br/>
| |
− | Sur l’Air de la Bequille.<br/>
| |
− | '''''Das entdeckte Geheimniß der Frey-Mäurer''' übersetzt'':<br/>
| |
− | Nach der Krücken-Melodey.<br/>
| |
− | '''''Die offenbarte Freymäurerey''' übersetzt'':<br/>
| |
− | Nach der Weise des Französischen Liedes von der Krücke des Vaters Barnabas.]
| |
− |
| |
− |
| |
− | :Saursichtiger Diogenes,
| |
− | :Du suchst beym hellen Tages Lichte
| |
− | :Mit der Latern, ob nur ein Mensch
| |
− | :In ganz Athen zu finden sey?
| |
− | :Durchsuch die Häuser der Frevmäurer;
| |
− | :Da wirst du lauter Menschen finden.
| |
− |
| |
− | :Die Freyheit sitzet oben an
| |
− | :Bey unsern frohen Gastereyen.
| |
− | :Ihr sitzt die Freud und Lust zur Seiten.
| |
− | :Und die freygebige Natur
| |
− | :Vereiniget in einem Mäurer
| |
− | :Den hochschätzbaren Epicur,
| |
− | :Und den vergötterten Platon.
| |
− |
| |
− | :Cupido, zörne nicht auf uns
| |
− | :Daß wir in unsre Zunft-Gebotte
| |
− | :Nicht eine deiner Nymphen laden;
| |
− | :Cupido, du bist nicht verschwiegen,
| |
− | :Du bist ein plauderhaftes Kind!
| |
− |
| |
− | :Du stellst ja sonst gnug Uebel an;
| |
− | :Laß unsre Heimlichkeit im Frieden.
| |
− | :Du würdest aus den Freund- und Brüdern
| |
− | :Erhitzte Gegenbuhler machen.
| |
− | :Allein es fürchtet unsre Zunft
| |
− | :Die Eifersvollen Liebeskriege.
| |
− |
| |
− | :Doch glaube nicht, daß wir uns immer
| |
− | :Entziehen deinem Regiment;
| |
− | :Nein; unsrer Seufzer Menge redet
| |
− | :Das Lob von deinem sanften Joch.
| |
− | :So bald ein Mäurer sich nach Hause
| |
− | :Von der Versammlung wegbegiebt,
| |
− | :Wird er dein tapferer Soldat.
| |
− |
| |
− | :Durch mich, ihr Brüder, meldet sich
| |
− | :Ein Günstling von Horaz, bey euch,
| |
− | :Um einen Platz in eurer Zunft;
| |
− | :Und, lüstern nach der Mäurerey,
| |
− | :Beeckelt er die Brüderschaft
| |
− | :Gewisser tiefgelehrter Herren.
| |
− |
| |
− | ===Eine viel spätere deutsche Übersetzung, 1776===
| |
− |
| |
− | Aus:<br />
| |
− | Vollständiges Liederbuch der Freymäurer mit Melodieen, in Zwey Büchern. Kopenhagen und Leipzig 1776, 102-105<br />
| |
− | (mit den Initialen „E. H.“)<br />
| |
− |
| |
− | ''Ebenfalls in'':<br />
| |
− | Allgemeines Gesangbuch für Freymäurer. Danzig: Brückner 1784, 13-14
| |
− | (mit dem Titel: „Lehr-Lied“)<br/>
| |
− | Versuch einer vollstændigen Samlung Freimaurer-Lieder zum Gebrauch der Loge Ferdinand zum Felsen in Hamburg. 1790. 53-55.<br />
| |
− | Vollständiges Gesangbuch für Freimaurer. Berlin: Maurer 1801, 22-23.<br />
| |
− | Maurerische Gesänge für die Loge Archimedes zu den drei Reißbretern in Altenburg. 1804, 22-23.
| |
− |
| |
− | ''Um die zwei letzten Strophen gekürzt in'':<br />
| |
− | Freymaurer-Lieder zum Gebrauch für die Mitglieder der gerechten und gesetzmäßigen Loge Charlotte zu den drey Sternen. 1786, 9-11<br />
| |
− | (mit Chor und der Angabe „Eckhof“)
| |
− |
| |
− | Sammlung auserlesener Freymaurer Lieder. 1790, 127-129<br />
| |
− | (mit Chor und der Angabe „Eckhof“).
| |
− |
| |
− | Sammlung Maurerischer Lieder zum Gebrauch der zum Sprengel der Provinzial-Loge von Niedersachsen gehörigen Logen. Hamburg: Hamann, 1823, 86-87.
| |
− |
| |
− | ''Noch vollständig zitiert unter „Proben freimaurerischer Poesie“ in'':<br />
| |
− | Dietrich von Oertzen: Was treiben die Freimauer?<br />
| |
− | Zweite Aufl. Gütersloh: Bertelsmann 1882, 97-98.
| |
− |
| |
− | '''Nach dem französischen Liede:'''<br />
| |
− | La lanterne à la main etc.<br />
| |
− | (von Abbé Fréron, ca. 1743)
| |
− |
| |
− |
| |
− | :Bey der hellsten Mittagssonne
| |
− | :Nahm Diogenes ein Licht,
| |
− | :Schlich damit aus seiner Tonne,
| |
− | :Suchte Menschen fand sie nicht;
| |
− | :Denn er sah bey seinem Licht
| |
− | :Fast den Wald vor Bäumen nicht.
| |
− |
| |
− | :Bringt den grämlich steifen Alten,
| |
− | :Bringt ihn in die Loge her.
| |
− | :Wisch' aus dem Gesicht die Falten,
| |
− | :Alter! sey doch freundlicher!
| |
− | :Was du suchst, und in Athen
| |
− | :Nicht gefunden, sollst du sehn.
| |
− |
| |
− | :Sehn, wie beym bescheidnen Becher
| |
− | :Plato sich und Epikur
| |
− | :Hier vereint, und muntre Zecher,
| |
− | :Weisheit lehren und Natur.
| |
− | :Schöner reitzet die Natur,
| |
− | :Zeigt die Weisheit uns die Spur.
| |
− |
| |
− | :Mädchen zwar, damit Cythere
| |
− | :Und der kleine Bösewicht,
| |
− | :Amor, unsre Ruh nicht störe,
| |
− | :Findst du in der Loge nicht.
| |
− | :Unsre Logen sind zu dicht:
| |
− | :Hier trifft Amors Bogen nicht.
| |
− |
| |
− | :Doch die Schönen zu verehren,
| |
− | :Bleibet unsre süßste [ab 1786: eine süsse] Pflicht:
| |
− | :Ohne sie, die Schwestern, wären
| |
− | :Wir und unsre Väter nicht.
| |
− | :Süßer Liebe froher Scherz
| |
− | :Adelt auch der Weisen Herz.
| |
− |
| |
− | :Glücklich, wen nach frohem Schmause,
| |
− | :Wenn sich unsre Loge schließt,
| |
− | :Seine Maurerin zu Hause
| |
− | :Mit verliebter Sehnsucht küßt!
| |
− | :Glücklich, wem die schönste Nacht,
| |
− | :Hymen so entgegen lacht.
| |
− |
| |
− | [Seit 1790 für die letzten zwei Zeilen:]
| |
− | :Heil dem, dessen Loos es ist,
| |
− | :daß ein treues Weib ihn küßt.
| |
− |
| |
− | :Hymen muß ihm seinen Segen,
| |
− | :Seinen besten Segen weyhn;
| |
− | :Bald lach ihm ein Sohn entgegen,
| |
− | :Werth ein Maurer einst zu seyn;
| |
− | :Und mit freudigem Gesicht
| |
− | :Seh der Jüngling hier das Licht.
| |
− |
| |
− | ===Eine leicht veränderte deutsche Version, 1823===
| |
− |
| |
− | Aus:<br />
| |
− | Lieder zum Gebrauch der unter der Constitution der Großen Loge zu Hamburg vereinigten Logen. 1823, 257-258.
| |
− |
| |
− | :Bey der hell‘sten Mittagssonne
| |
− | :Nahm Diogenes ein Licht,
| |
− | :Schlich damit aus seiner Tonne,
| |
− | :Suchte Menschen fand sie nicht;
| |
− | :Denn er sah bei seinem Licht
| |
− | :Fast den Wald vor Bäumen nicht.
| |
− |
| |
− | :Bringt den grämlich düstern Alten,
| |
− | :Bringt den Finstern zu uns her!
| |
− | :Fort mit dem Gesicht voll Falten,
| |
− | :Alter sey doch freundlicher!
| |
− | :Was du suchst, und in Athen
| |
− | :Nicht gefunden, sollst du sehn:
| |
− |
| |
− | :Sehn, wie bei‘m bescheid‘nen Becher
| |
− | :Plato sich und Epikur
| |
− | :Hier vereint; und muntre Zecher
| |
− | :Weisheit lehren und Natur.
| |
− | :Schöner reizet die Natur,
| |
− | :Zeigt die Weisheit uns die Spur.
| |
− |
| |
− | :Mädchen zwar, damit Cythere
| |
− | :Und der schlaue Bösewicht,
| |
− | :Amor, uns‘re Ruh‘ nicht störe,
| |
− | :Siehst du bei dem Mahle nicht.
| |
− | :Strengerm Ruf gehorchen wir,
| |
− | :Nichts gilt Amors Herrschaft hier.
| |
− |
| |
− | :Doch die Schönen zu verehren,
| |
− | :Bleibet uns eine süße Pflicht!
| |
− | :Ohne sie, die Schwestern, wären
| |
− | :Wir und uns‘re Väter nicht.
| |
− | :Süßer Liebe froher Scherz
| |
− | :Adelt auch der Weisen Herz.
| |
− |
| |
− | :Glücklich, wen nach frohem Schmause,
| |
− | :Von verjüngter Lust begrüßt,
| |
− | :Seine Maurerinn zu Hause
| |
− | :Liebend in die Arme schließt.
| |
− | :Heil ihm, dem ein treues Herz
| |
− | :Nahe bleibt in Freud‘ und Schmerz!
| |
− |
| |
− | :Hymen mög‘ ihm seinen Segen,
| |
− | :Seinen besten Segen weih’n!
| |
− | :Bald lach‘ ihm ein Sohn entgegen,
| |
− | :Werth, ein Maurer einst zu seyn!
| |
− | :Und mit fröhlichem Gesicht
| |
− | :Seh‘ der Jüngling einst das Licht!
| |
− |
| |
− |
| |
− | {{RolandMueller}}
| |
− |
| |
− |
| |
− | {{SORTIERUNG:Hiertrifftamorsbogennicht}}
| |
− | [[Kategorie:Lieder]]
| |